प्राणमय कोश

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अनमय कोशको निरुपण गरेपछि अब श्रुतीक्रम अनुसार प्राणमय कोशको वर्णन गरिन्छ ।

कर्मेन्द्रियैः पञ्चभिरञ्चितोऽयं प्राणो भवेत्प्राणमयस्तु कोशः । येनात्मवानन्नमयोऽनुपूर्णः प्रवर्ततेऽसौ सकलक्रियासु ।।१६७।।

पाँच कर्मेन्द्रियले युक्त प्राण नै प्राणमय कोश हो । यही कोश (प्राणमय) बाट युक्त भएको यो अन्नमय कोश सम्पूर्ण क्रियामा प्रवृत्ति हुन्छ । ।।१६७।।

वाक, पाणी (हात), पाद (खुट्टा), गुदा (गुहद्वार, र उपस्थ (जनेन्द्रीय) यी पाँच कर्मेन्द्रियले परिपूर्ण प्राण नै प्राणमय कोश हो । यही प्राणमय कोशको शक्तिबाट भरिएकोले अन्नमय कोश अनेकन क्रियामा प्रवृत्त हुन्छ । देहको जुन भागसँग प्राणको सम्बन्ध रहँदैन, त्यो अंग क्रिया गर्न असमर्थ रहन्छ ।

मृत्युको समयमा जब यो प्राणवायु देहबाट निस्किएर जान्छ, देह कुनै कर्म गर्न असमर्थ रहन्छ । अर्थात् प्राणमय कोशबाट युक्त भएको अन्नमय कोश नै सम्पूर्ण क्रियामा प्रवृत्त हुन्छ ।

नैवात्मापि प्राणमयो वायुविकारो गन्तागन्ता वायुवदन्तर्बहिरेषः ।
यस्मात्किञ्चित् क्वापि न वेत्तीष्टमनिष्टं
स्वं वान्यं वा किञ्चन नित्यं परतन्त्रः ।।१६८ ।।

वायुको विकार यो प्राणमय कोश पनि आत्मा होइन, यो वायुझैं भित्रबाहिर आउने जाने गर्दछ । यो प्राणमय कोश इष्ट वा अनिष्ट अथवा स्वयं वा पराई (दोश्रो) छुट्याउन सक्दैन । यो नित्य परतन्त्र छ । ।।१६८ ।।

प्राण वा प्राणमय कोश जुन वायु झैं श्वास–प्रश्वासको रूपमा शरीरबाट भित्र जाने, बाहिर आउने गर्ने हुनाले सक्रिय, प्राणमय आदिद्वारा नियन्त्रण गर्न सकिने हुनाले परितन्त्री, आफ्नो–पराई, इष्ट–अनिष्ट आदि छुट्याउन नसक्ने हुनाले जड वा अचेतन, यस्तो सक्रिय, परतन्त्री, अचेतन प्राणमय कोश अक्रिय, स्वतन्त्र र चेतन आत्मा हुन सक्दैन । अन्नमय कोश झैं प्राणमय कोश पनि आत्मा होइन ।

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